॥ ॐ महाकालाय विकर्तनाय मायाधराय नमो नमः॥
हिमालय की दिव्य भूमि में कुल्लूत नाम का एक प्राचीन देश.... जहाँ मां भगवती पाराम्बा का निवास माना गया तथा शिव की तंत्रमयी तपोभूमि मानी जाती है... में एक स्थान ऐसा भी था , जिसे कौलान्तक पीठ कहा जाता था। इस पीठ के पर्यायवाची नाम क्रमश: कुलांतर पीठ, कुलान्तक पीठ, कोलांतर पीठ, कौलांतर पीठ हैं। इस पीठ की स्थापना स्वयं शिव द्वारा की गयी मणि जाती है। क्योंकि माँ सती से सम्बन्धित होने के कारण भगवान शिव ने स्वयं हिमालय के एक भाग में इस पीठ की स्थापना की थी। इस पीठ के प्रथम पीठाधीश भगवान लोमेश ऋषि को माना जाता है। उसके बाद क्रमश: अनेक दिव्य ऋषियों ने इस पीठ को संभाला। कलयुग में वर्ष २००२ में हिमालय की दिव्य ऋषि परम्परा के द्योतक प्रातः स्मरणीय पूज्य पाद श्री सिद्धसिद्धांत नाथ जी महाराज ने इस पीठ पर श्रद्धेय महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी महाराज को पीठाधीश के रूप में प्रतिष्ठित किया गया व पहली बार महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी महाराज ने हिमालय की प्राचीन पीठ व भारत की सबसे प्राचीन पीठ कौलान्तक पीठ को पुन: विश्व भर में प्रसारित व प्रतिष्ठित करने का दायित्व स्वीकार किया। कौलान्तिक पीठ तप , साधनाओं और अध्यात्म ज्ञान का भंडार है। यह एक मात्र ऐसा पीठ है जिसके साधकों को ६४ कला संपन्न होने का गौरव प्राप्त है। सांकेतिक रूप से शास्त्रों में इसी पीठ को ज्ञान गंज, सिद्धाश्रम व महा हिमालय कहा गया है। ऐतिहासिक दृष्टि से हिमाचल के कुल्लू शहर के मध्य से बहती विपाशा नदी जिसे वर्तमान में व्यास नदी भी कहा जाता है के साथ लगता पूर्वी व उत्तरी क्षेत्र तिब्बत के अंतिम पठार तक कौलान्तक पीठ कहलाता है व नदी के दक्षिणीपश्चिमी भाग को जालंधर पीठ माना गया है जिसकी स्थापना काक भुशुण्डी जी महाराज ने की थी। रेशमी मार्ग पर आने वाले दुसरे देश के आक्रमणकारियों ने दोनों पीठों को नष्ट कर दिया था। किन्तु कौलान्तक पीठ को उस समय के पीठाधीश ज्ञानेंद्र नाथ जी महाराज ने पुनर्प्रतिष्ठित किया तथा यह भी कथा आती है की उस समय नव नाथ और चौरासी सिद्ध हिमालय भ्रमण करते हुए इस पीठ पर पहुंचे तथा उन्होंने इस पीठ के जीर्णोद्धार में सहायता की। इसी कारण इस पीठ पर नाथ सम्प्रदाय और सिद्ध संप्रदाय का भी अधिकार हो गया जो मत्स्येन्द्र नाथ जी महाराज व गुरु गोरख नाथ जी महाराज द्वारा स्थापित है। कौलान्तक पीठ में साधक अलग- अलग देशों, अलग - अलग द्वीपों से ज्ञान व विद्या प्राप्त करने आते थे। इस पीठ का पीठाधीश्वर बनने हेतु योग, ज्योतिष, तंत्र, वास्तु, कर्म कांड , आयुर्वेद सहित अनेक विषयों का ज्ञान होना अनिवार्य है व हिमालय के उच्चतम क्षेत्रों में हट साधनाओं को संपन्न करना होता है तथा गुरु शिष्य परम्परा के अनुकूल ही यह पीठ प्राप्त होती है। किन्तु खेद का विषय यह रहा की लगभग २००० सालों से कौलान्तक पीठ का परम्परा हिमालय के क्षेत्रों में आंशिक रूप से जीवित रही लेकिन उसी कल से जालंधर पीठ सहित अन्य चार दिव्य पीठें लुप्त हो गयी। संभवतः इसी आशय को जगत गुरु भगवान शंकराचार्य जी ने समझा व हिमालय की इन लुप्त पीठों के बराबर की चार पीठों की स्थापना की। किन्तु सकल जगत के लिए यह प्रसन्नता का विषय है के महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी महाराज ने सबसे प्राचीन कौलान्तक पीठ की पुनर्स्थापना का बीड़ा उठाया है। महायोगी स्वयं इस परम्परा से जुड़े हैं व नाथ परम्परा से भी दीक्षित हैं।